देहरादून,डीटी आई न्यूज़।उत्तराखण्ड में वर्ष 1960 के दौर में चिकित्सा पर अभूतपूर्व कार्य हुए उसी दौरान उत्तराखण्ड चिकित्सा के लिए नए नियमावली बनी जिस में प्रति 3000 की जनसंख्या या 3 km के दायरे में एक phc चिकित्सा केन्द्र होगा जिस में एक फिजिसियन सहित 5 कर्मचारी नियुक्त होंगे। प्रति विकास खण्ड में एक chc चिकित्सा केन्द्र होगा जिस के अधीन सभी ग्रामीण चिकित्सा केन्द्र आएंगे। अनुमानित प्रत्येक न्यायपंचायत में 1 चिकित्सा केन्द्र बना। कुछ न्याय पंचायत ऐसे भी थे जहां 2 चिकित्सा केन्द्र बने। इस chc में सभी आधुनिक सुविधाएं होनी थी
जिस में अल्ट्रासाउंड ecg एक्सरे सहित सभी जांच उपलब्ध होनी थी। समय बदलता गया और नियमों में बदलाव होते गए। who व nrhm ने भी अनेकों दिशानिर्देशों के साथ phc व chc जो मजबूत करने की कोशिश किया। who ने वर्ष 1990 में अपने एक रिपोर्ट साझा किया जिस में उन्होंने 144 देशों के पहाड़ी राज्यों पर सर्वे किया था। उस में पहाड़ी राज्यों से पलायन का मुख्य कारण चिकित्सा थी। who का कहना था चिकित्सा आम नागरिक के लिए सब से खर्चीला होता हैं। जिस को हर देश मूलभूत सुविधाओं में रखे। चिकित्सा कानून व शिक्षा पर अतिरिक्त ध्यान दिया जाय जिस से नागरिको के अनेकों मसले हल हो सकते हैं किंतु ऐसा हुआ नही औऱ आज यही तीनों मूलभूत सुविधाएं भारत में सब से महंगी हैं। who व nrhm ने चिकित्सा मुफ्त की वकालत की थी जो कागजी तौर से तो मुफ्त हैं किंतु धरातल पर नही हैं। दिल्ली जैसे राज्य मुफ्त चिकित्सा में काम कर रहे है किंतु केन्द्र शासित राज्य होने के कारण कही जटिलता बनी हुई हैं।
बात दिल्ली के मोहल्ला क्लीनिक व तमिलनाडु में स्थति अमा क्लीनिक करें तो सभी क्लीनिक उन्हीं phc व chc के तर्ज पर बनी हुई हैं उत्तराखण्ड के phc, chc का ही प्रारूप दिल्ली मोहल्ला क्लीनिक व तमिलनाडु अमा क्लीनिक हैं। उत्तराखण्ड में स्थापित phc, chc की गुणवत्ता मैं भलीभांति जानता हूँ किन्तु दिल्ली के मोहल्ला क्लीनिक के बारे में उतना ही जानता हूँ जितना अखबारों व मीडिया में छपता हैं। तमिलनाडु के अमा क्लीनिक में उपचार ले चुका हूँ यह उत्तराखंड के phc से भी बेहतर हैं।
आज उत्तराखण्ड को जरूरत हैं कि वह अपने phc, chc की गुणवत्ता पर ध्यान दें। उत्तराखण्ड प्रसासन यदि पहाड़ों का भला चाहती हैं तो ग्रामीण चिकित्सा को सुदृढ़ करना ही पड़ेगा। गाँव में चिकित्सकों की नियुक्ति करनी ही पड़ेगी इस बिकट समस्या से सरकार मुहं नही फेर सकती हैं चिकित्सा के अभाव में ग्रामीण दम तोड़ देते हैं। जिस से अनेकों परिवार बर्बाद हो रहे हैं। गाँव मे बेहतर चिकित्सा न मिलने की वजह से शहरों के चिकित्सा केन्द्रों पर अतिरिक्त भार पड़ रहा हैं जिस से शहरों में इलाज एक धंदा बन गया हैं। गाँव से शहरों का ट्रांसपोर्ट मरीज की दवाई से 4 गुना अधिक होता हैं। और यदि मरीज को कुछ दिन हॉस्पिटल रुकना पड़ेगा तो गरीब तबके के परिवार खत्म हो जाता हैं। सरकारों को ग्रामीण चिकित्सा मेम सुधार लाने पड़ेंगे। जिस के लिए कर्मचारियों की नियुक्ति प्रथम हैं। जिस से चिकित्सा केन्द्र संचालित होंगे।
वर्तमान में 2 लाख की जनसंख्या पर 1 फिजिसियन नियुक्त हैं। 12 phc केन्द्रों पर 4 चतुर्थश्रेणी कर्मचारी कार्यरत हैं। प्रदेश सरकार एक phc पर प्रति महीने 3 से 4 लाख खर्च करती हैं। समूचे उत्तराखण्ड में 108 जीवनदायिनी एम्बुलेंस दम तोड़ चुकी हैं। जिन के रखरखाव हेतु कोई उचित कदम नही उठाये गए। कर्मचारियों को समय पर मेहनताना नही मिल रहा। निजी हाथों में जाने से कर्मचारियों का शोषण हो रहा हैं। ओर राज्य का बेड़ागर्क हो गया। मात्र 12 वर्षों में ही 62% एम्बुलेंस कबाड़ बन चुके हैं। जिन को जीवित करने की अतिआवश्यकता हैं। यएम्बुलेंस संचालन हेतु डीजल का बकाया सभी चिकित्सालयों पर है। जिस का भुगतान अनेकों वर्षों से नही हुआ। भवनों की स्थिति जीर्णशीर्ण हो चुकी हैं। जिन भवनों का जीर्णोद्धार हुआ वह भरस्टाचार के भेंट चढ़ गया जिस की जवाबदारी किस की होगी यह तय नही हुआ। निर्माण विभाग भवन की गुणवत्ता पर पल्ला झाड़ देता हैं। चिकित्सा विभाग भरस्टाचार में लिप्त कर्मचारियों पर कार्यवाही नह करता। जिस का असर चिकित्सा गुणवत्ता पर पड़ रहा हैं।
मैं दिल्ली की उत्तराखण्ड से तुलना नही कर रहा हूँ। किंतु यह संभव हैं कि दिल्ली जैसा कुछ किया जाय दिल्ली के मोहल्ला क्लीनिक उत्तराखण्ड के चिकित्सा केन्द्रों से प्रेरित हैं मगर आज उत्तराखण्ड की चिकित्सा स्थिति रसातल में जा चुकी हैं जिस पर ध्यान देना चाहिए।