देहरादून।हर्षिता। जनजातीय क्षेत्र जौनसार-बावर की संस्कृति और परंपराएं हमेशा से अपने अनोखे अंदाज़ के लिए जानी जाती हैं। यहां हर पर्व लोकगीतों, नृत्यों और देवी-देवताओं की आराधना से सजीव होता है। दीपावली भी इससे अलग नहीं—बल्कि यहां दो बार दीपावली मनाने की परंपरा है।
इस क्षेत्र में 39 खत (परगने) हैं। इनमें से 9 खतों में नई दीपावली मनाई जाती है, जबकि शेष 30 खतों में पुरानी दीपावली, यानी नई दीपावली के लगभग एक माह बाद, पूरे उल्लास के साथ मनाई जाती है।
🔆 पर्यावरण अनुकूल दीपावली
जौनसार-बावर की दीपावली पूरी तरह पर्यावरण-मित्र होती है। यहां न पटाखों का शोर होता है, न प्रदूषण का धुआं। ग्रामीण चीड़ की लकड़ी के होले (मशालें) जलाकर अपने घरों और आंगनों को रौशन करते हैं। दीपावली के पांच दिन तक गांवों में गीत, नृत्य और पारंपरिक संगीत की गूंज रहती है।
🪔 नई दीपावली — देव आराधना और उत्सव
महासू देवता मंदिर हनोल, देवलाड़ी माता मंदिर, मैंद्रथ का बाशिक महासू मंदिर, रायगी का शेडकुडिया महाराज मंदिर, अणू और हेडसू गांवों में सदियों से नई दीपावली मनाने की परंपरा है।
इससे प्रेरित होकर बावर खत, देवघार खत, बाणाधार, लखौ, भरम, मशक, कैलो, धुनोऊ और दसऊ खत के करीब 100 गांवों में नई दीपावली मनाई जाती है।
इस बार 19 से 23 अक्तूबर तक चल रहे उत्सव में
पहला दिन — जिशपिशा,
दूसरा — रणदियाला,
तीसरा — औंसा रात,
चौथा — भिरुड़ी,
और पांचवां दिन — जंदोई मेला कहलाता है।
उत्सव के समापन पर लकड़ी के हाथी और हिरण का प्रतीकात्मक नृत्य होता है, जिसमें पुरुष और महिलाएं पारंपरिक पोशाक पहनकर हारूल, तांदी और रासो नृत्य प्रस्तुत करते हैं।
🌕 पुरानी दीपावली — संस्कृति की विरासत
नई दीपावली के एक माह बाद 30 खतों के 260 गांवों में पुरानी दीपावली धूमधाम से मनाई जाएगी।
इनमें विशायल खत, समाल्टा, उदपाल्टा, फरटाड, कोरु, विशलाड, शिलगांव, बोंदूर, तपलाड, उपलगांव, बाना, बमटाड, लखवाड़, अठगांव, द्वार, बहलाड, सिली गोथान और पंजगांव प्रमुख हैं।
यहां भी पांच दिन तक दीपों की लौ, गीतों की धुन और ढोल-दमाऊं की थाप में देवभूमि की लोकसंस्कृति झूम उठती है।
✨ जौनसार-बावर की दीपावली सिर्फ एक त्योहार नहीं, बल्कि यह संस्कृति, लोककला और प्रकृति के सम्मान का उत्सव है।
जौनसार-बावर में अद्भुत परंपरा: 260 गांवों में आज भी पुरानी दीपावली की रौनक, जानिए क्यों यहां अलग है त्योहार का रंग