पौड़ी गढ़वाल-प्रभुपाल सिंह रावत।आये दिन सरकार ने भले ही पंचायतों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को आगे बढ़ाने के लिए आरक्षण की व्यवस्था दी है ताकि महिलाए भी पुरुष की बराबरी कर सके लेकिन जमीनी हालत व सच इससे अलग दिखायी दे रहा है।आज भी पंचायतो की बैठक में 2 से 5% महिला प्रधानों को छोड़कर अधिकतर उनकी जगह उनके पति,ससुर,पिता,पुत्र व परिजन ही बड़े रौब,शौक व शान से बैठकों में शिरकत करते देखे जा सकते हैं बल्कि फैसले भी ले रहे हैं जबकि प्रधान की जगह अन्य किसी का बैठक में उपस्थित होना या हस्तक्षेप करना संविधान की मूल भावना के विपरीत व विरुद्ध है।प्रधान ही नहीं बल्कि जिला पंचायत सदस्य क्षेत्र पंचायत सदस्यो में भी ऐसे ही होता आ रहा है।महिला प्रतिनिधि की जगह उनके पति ससुर व अन्य परिजन पंचायत व प्रखंड की बैठक में पंचायतराज की व्यवस्था को खुली चुनौती दे रहे हैं।इस बात को सब जानते हैं लेकिन हमारे प्रदेश में ये परम्परा वर्षों से चलती आ रही है लेकिन सब मौन हैं,बिल्ली के गले में घंटी कोई नहीं बान्धना चाहता।

महिला प्रधान न भाषण न बोल पाती हैं न फैसले ले पाती है जिससे पंचायत का विकास व व्यवस्था गडबडा रही है।और तो और उन्हें पंचायतराज नियमावली की जानकारी व बोध ज्ञान तक नहीं हैं।यहाँ तक देखा गया है कि महिला प्रधान के हस्ताक्षर व मोहर तक उनके प्रियजन स्वयं इस्तेमाल व हस्ताक्षर करते हैं।पंचायत की मोहर जेब में बराबर रहती है।अब ऐसे में क्या आरक्षण सही है।

कयी प्रतिनिधियों ने प्रखंड मुख्यालय तक दर्शन नहीं किये होगें फिर ऐसे में गांवों के विकास की कैसे कल्पना की जा सकती है।गाँवो के विकास तो दूर सिर्फ अपना व अपने परिवार का ही विकास होगा।कहते हैं कि देश का विकास तभी सम्भव है जब गाँव का निरंतर विकास होता है।

ये गम्भीर विषय है नीति नियन्ताओ को इस पर गहन सोच विचार व मंथन की आवश्यकता है,या फिर ऐसी परम्परा चलती रहेगी?

By DTI